रंगो का युद्ध
लाल लहू से रक्तरंजित , लड़खड़ाई भारत माँ मेरी।
इस विविध रंगो के युद्ध में , निकली जाती है जां मेरी।
कभी ‘हरा’ रंग हुआ है बेलगाम , कभी ‘भगवे’ में उबाल है।
कभी ‘पीला’ क्रोध से है भरा , कभी ‘नीले’ की टेड़ी चाल है।
क्यों हर तरफ यह शोर है? क्यों काली घटा घनघोर है?
दंगो की इस स्याह रात में, आती न नज़र अब भोर है।
हर उत्सव लहूलुहान है, सड़को पर बिखरी जान है।
फ़ीका सा लगता तिरंगा अब, कुछ कमतर देश की शान है।
हर आँख लहू से है भरी , हर ह्रदय वज्र से भर गया।
आक्रोश की इस अग्नि में जल के, अन्तःकरण भी मर गया!
अपने मतों के लोभ में , तेरी मति को भ्रमित किया।
सत्ता के लोभी नेताओं ने, इस पावन भूमि को श्रापित किया।
अब आँख खोल, यह खेल समझ, क्यों उंगलियों पे रहा तू नाच है ?
धर्म जाति पर पनपे यह नेता, सौहार्दता पर गिरी गाज़ है।
रंगो के उन्माद में ऐ मदमस्त हाथी, जो रौंद रहा वो स्वदेश है।
मिलाप निष्कलंक ‘श्वेत’ है , टकराव टूटता देश है।
यदि ठान ले तू आज से, कि सर्वोपरि मेरा देश है।
विश्व पटल पर चमकेगा भारत, बस इतना ही मेरा सन्देश है |
– नीरज गेरा
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Awesome post! Keep up the great work! 🙂